Wednesday, July 13, 2011

Muraqaba

The following poem came as a comment on my previous post, from one of my dearest friends and mentor. He says that the poem was written in an abosolute spontaneity and the words flew as if some external force pumped the thoughts and compelled him to type them down. Here it goes. 
ps: i have altered it a bit (very few changes)


गर कोई बता  दे,
तो  भी क्या फरक  पड़ता  है?
ज़िन्दगी  हुई  पूरी 
तो मौत लिए  जाता  है ?
ज़िन्दगी  की  तलाश  में  ज़िन्दगी  अधूरी  रह  जाती  है 
ज़िन्दगी  गर  मिलती  है  तो  जान  लिए  जाती  है 
पहचान  के  उस  ज़िन्दगी  को  जो  सवाल  उठाये  जाता  है 
क्या  है  जान ? खुदी क्या है ?
क्या  है  प्यार ? रूहान  क्या  है ?
क्या  तू  भी  इसी  तलाश  में  डूबा  जाता  है ?
कौन  है  तू ? तेरी  पहचान  क्या  है ?
गर  पूरी  हो तलाश तो 
तो क्या इक अँधेरी रात में भटकता जुगनू है तू? 
तू  किसको  ढूँढता  फिर  ता है ?
न  तू  रहेगा, न  तेरा  वजूद  बाक़ी 
लगे  रहो  सिर्र - ओ - इसरार  की  तलाश  में 
कौन  जाने  किसको, कब, क्या, कैसे  मिल  जाए
किसी  को  शायद  रूह
तो  किसी  को   नूर या फिर कोई अपने नफ्स पे काबू और मिल जाए.................

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