Saturday, September 4, 2010

Some couplets for a refreshing change - Part 3 (the conclusion)

On my own here i go with presumably the last in this series of couplets, before i write once again something worth sharing. These  have been written on an experimental purpose, but do try to emphasise on the meaning and ponder about it (if you may please to).




सच कहो मुखालिफत से क्यों डरते हो?  
ए ईमान वालों मुशरिकों से क्यों पिचढ़तेय हो?
अरे हर शय का तोह राजिक-ओ-मालिक है इक खुदा,
तो फिर क्यों यह तेरा वोह मेरा झगडते हो?




मुश्किलों भरे सफ़र में ख़ुशी की तलाश करते हुए
हम चल तो पड़े 
चलते चलते राह में आराम तलबी का जी चाहा ही,
की तभी हमें कुछ नज़र आया.
गफलतों का एक घना दरक्थ .
उसकी ग़म भरी छाओं में इत्मीनान की चादर ओढे हम अभी सोये भी न थे
की आपकी रहज़नी का शिकार हुए.
 आपको हमसे हासिल हुआ भी तो क्या? 
हमारी मुफलिसी!!! 



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